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मैँ रोटी हूँ….
कहीँ गोल….कहीँ चौकोर….
मेरे ही पहिये पर चढकर….
इन्सान पूरा करता जिंन्दगी का सफर…..
मैँ बना देती हूँ आदमी को क्या से क्या….
कभी मदारी….कभी शिकारी….
चल जाता है शोलोँ पर….
बैठ जाता है….बर्फ के गोलोँ पर….
मैँ बङी किस्मत से मयस्सर होती हूँ….
अमीरोँ की महफिल मेँ….
मेरा जायका है थोङा कम….पर….
” गरीब ” का है मेरे दम से दम….
मेरे लिए इन्सान कुछ भी कर सकता है….
चोरी…डकैती से भी…न उसको गुरेज हो सकता है….
मैँ अमीर – गरीब दोनोँ को प्रिय होती हूँ …..
सुन लो….
ऐ मेरा अपमान करने वालो….
फाकोँ की आमद को दावत देने वालो…..
आज मगरूर हो अपना पेट भर….
जरा देखो झोँपङियोँ मेँ चलकर…..
मेरे एक टुकङे के कई तलबगार हैँ….
इस मुल्क मे लाखोँ भुखमरी के शिकार हैँ….
मैँ सबसे सम्मान की हकदार होती हूँ….
जब आदमी मुझसे छक जाता है….
सिर्फ तभी ही….सोच सकता है….
आजादी के बारे मेँ…..
अधिकारोँ के बारे मेँ….
आविष्कारोँ के बारे मेँ…..
आत्मा के बारे मेँ….
परमात्मा के बारे मेँ……
कभी कभी मेँ इश्वर से भारी होती हूँ….
क्योंकि….मैँ रोटी हूँ….
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