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संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥
भावार्थ –
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन। कुल्हाड़ी चंदन को
काटती है। क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है, किंतु चंदन
अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे सुगंध से सुवासित कर देता है॥
असंतों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी
चाहिए। उनका संग सदा दुःख देने वाला होता है।
This picture was submitted by Sunil Sharma.
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