लुभाये न मुझको अब कोई पदार्थ
मेरा तो बस अब एक ही स्वार्थ
धर्म युद्ध हो या कर्म युद्ध हो
तू बने सारथि, मैं बनूँ पार्थ ।
मैं हूँ अनाथ
बन के मेरा नाथ
अपने रथ में
ले चल मुझे साथ।
तुलसी कहे तो राम है, सूर कहे तो श्याम,
अमित रूप अवतार लिए, अमित प्रभु के नाम।
कर्म वो है धर्म वो है आदि और अंत भी वो है
मानो तो दारू-ब्रह्म नहीं तो नीम का लकड़ी कहलाता है।।
राम राम रटता रहूं पुण्य मंदाकिनी तीर।
चित्रकूट निवास करें सीता अरू रघुबीर।
नगर द्वारिका मन बसे, नित आए सुरसेन।
कृष्ण कृष्ण सुमिरन करें, विकला मन को चैन।
पुरी नगर में वास करें सकल जगत आधार।
जगन्नाथ के नाम को लो निज मन सब धार।