“श्राद्ध खाने नही आऊंगा कौआ बनकर
जो खिलाना है अभी खिला दे”
_वृद्ध पिता
ज़िंदा रहते में दो वक़्त की रोटी उन बूढो को नसीब न हुई
आज ज़माना उनके नाम पे कौवो को खाना खिला रहे है
कौवों और पंडों की क्षुधा पुर्ण करके स्वर्ग पहुंचाया जा रहा है खाना
यह सब देखकर जाने से पहले त्वरित डाक भी बनाने लगे हैं बहाना
बोलते हैं हम तो तुरंत जाते हैं फिर भी बहुत देर हो जाती है
क्यों नहीं उसी प्रणाली से डाक व्यवस्था बहाल की जाती है
चलो पितृपक्ष के बहाने ही सही..
इस भागदौड भरी जिंदगी से कुछ समय हम/आप अपने पितरों का पूजा करते उनको याद करते हैं.. उनके नाम से दान-पुण्य और जरूरत का सामान पँडित या किसी जरूरतमंद को देते हो। लेकिन मेरे मानना है ये पुण्य आपको तभी लगेगा जब आपने अपने पितरों की जीते-जी उनको कोई दुख ना पहुँचाया हो, उनको बोझ ना समझा हो…..
अर्थात अगर आप आज अपने घर के बड़े बूढों के साथ समय व्यतीत करे उनको ये एहसास ना होने दे कि वो बूढ़े है,, अब उनको आपकी नही… बल्कि आपको आज भी, उनकी जरूरत है। ये सब करोगे वही सबसे पुण्य होगा और यही फलदायक होगा….
” सही मायने मे तर्पण है।”
इज्जत भी मिल सी
दोलत भी मिल सी
सेवा करो मां बाप री
जन्नत भी मिल सी
ये पितृपक्ष भी न जाने कितनी
यादों को संग लाती है
पापा संग बिताये पल और मनुहार
तिल-तिल सजा जाती है
यूँ लगता है कि वो दूर हैं
फिर भी पास है मेरे
तर्पण करती हूँ अंजुलि भर
अपने आंसुओं से मेरे
ओ पितृपुरुष!!
आप सदैव विद्यमान हैं
इस घर के प्रत्येक कोने में
प्रत्येक वस्तु-स्थान में
कण कण में जल-स्थल में
विषय-आशय अपरा-परा में
आज भी निहित है
आप इस घर की शिक्षा-दीक्षा
संस्कार-संस्कृति में
देव-स्वरूप विद्यमान हैं
आप हर स्थिति में
हे पितृपुरुष!!
आप सभी विपत्तियों से
हमेशा बचाव करें
आपको इस वर्ष के लिए
अश्रुपूर्ण विदाई🙏🙏🙏
वो समय निष्ठुर था
पर जाना आपका भी निश्चित था
विधाता के समक्ष
समय का हारना सुनिश्चित था
श्रद्धा सुमन से
वंदना करूँ मैं आपके चरणों की
आप जहां भी रहें
खुश रहें यही कामना मेरी
परंपराओं में भी दोहरी मानसिकता
आस्तिक नहीं अपनाया नास्तिकता
पुरुषों के लिए श्राद्ध तर्पण पिंडदान
स्त्रियों का किया, यहाँ घोर अपमान
पुत्र भूला, सभ्यता-संस्कृति-संस्कार
पुत्रियों ने निभाई सांस्कृतिक परंपरा
खंड-खंड सामाजिक ताना-बाना को नव सृजित करना होगा
पुत्रियों का भी स्थान,, पुत्र सम समाज में निहित करना होगा
नहीं तो, एक दिन विद्रोह यह प्रबल होगी
हम चुनेंगे अपना स्थान जो अव्वल होगी
शबे-बारात में जैसे नूर उतरकर है आया
इस तरह श्राद्ध–पितृपक्ष दस्तूर है आया
पितरों पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान
भक्ति, शक्ति, मुक्ति युक्ति तृप्ति महादान
पुत्र ही देगा मुखाग्नि पिंड तर्पण और मोक्ष
पुरुष-प्रधान समाज की गढ़ी हुई है ये सोच
राजा यज्ञ करवाते हैं पुत्र प्राप्ति के निमित्त
अन्न धन वैभव ऐश्वर्य सर्व कर्म पुत्र निहित
यूँ ही नहीं मनाते हैं श्राद्ध-पितृपक्ष शुभ कार्य वर्जित करके
हम शोक-संवेदना से संलिप्त होते हैं हृदय उत्सर्जित करके
एक लोटा जल से भी ऋणमुक्त हुआ जा सकता है
पितरों पूर्वजों का तर्पन ऐसे भी किया जा सकता है
यथा संभव–तथा लाभ
भुक्ति-मुक्ति पितृ यथार्थ
आया हूँ इस लोक भ्रमण को
पिंडदान और मुक्त तर्पण को
पूर्वज हूँ तेरा इतना फर्ज निभा देना
एक लोटा गंगाजल मुझे पिला देना
विष्णुपद में मुझे बुलाकर मेरा पिंडदान करा देना
उसके बाद मेरे नाम का तर्पण फल्गू में बहा देना
पितृपक्ष में बड़ी आस से तेरे घर को आया हूँ
श्राद्ध पक्ष में विश्वास लेकर द्वार पर आया हूँ
मेरी मुक्ति के निमित्त ये संस्कार करा देना
लोक परलोक शुद्ध मुक्त सत्य करा देना
मेरी क्षुधा के निमित्त भरपेट भोजन
कर्मकांडीय ब्राह्मण को खिला देना
एक और पत्ते में भोजन को तुम
गौ, कौवा, कुत्ते भी रख आना
फिर थोड़ा भोजन तुम करना
मेरा आशिर्वाद ग्रहण करना
पितृपक्ष के पावन सोलह दिन
अधर्म अहिंसा कुकर्म छल बिन